रविवार, 7 अक्तूबर 2018

बेटा समझदार हो गया है

दिन के 2 बजे थे। बेटा कंप्युटर पर सिनेमा देख रहा था। वह अब 15 वर्ष का हो गया है। मेरा मोबाइल कंप्युटर टेबल पर रखा हुआ था और चार्ज हो रहा था।
     मैंने कंप्युटर टेबल से अपना मोबाइल उठाया और चार्ज करने वाले केबल को मोबाइल से अलग किया। फिर धीरे-धीरे वहाँ से पीछे मुड़कर जाने लगा। पीछे से खाँसने की आवाज आई। मुझे लगा शायद बेटे को कुछ कष्ट हो रहा है। पीछे मुड़कर देखा। बेटा मुझे स्विच की ओर इशारा करते हुए दिखा। मैंने स्विच की ओर देखा। स्विच बोर्ड से स्विच अॉफ करना मैं भूल गया था। फिर मुझे वह स्विच जाकर अॉफ करना पड़ा।
     आज के बच्चे अपने से बड़ों के प्रति कितने सजग हो गए हैं। वे बड़े-बूढ़ों की कोई गलतियों को तुरत पहचान लेते हैं। गलतियों पर समय-समय पर अच्छी डांट भी पिलाते रहते हैं। ये कीजिए, वो मत कीजिए। ये पहनिए वो मत पहनिए। ऐसे रहिए, वैसे मत रहिए। जैसे तैसे रहकर बेटे को बेइज्जत मत कीजिए।
     इस उम्र में मेरे बेटे को सही गलत की पहचान हो गई है। यह मेरे लिए बड़ी खुशी की बात है। अब मुझे उस दिन का इंतजार है, जब वह मुझे अपने गोद में लेकर खिलाएगा और मैं अपने बिना दांतों वाले मुंह को चलाता हुआ उसके मुख को एकटक निहारता रहूँगा।

डंडा वाले आचार्यजी

    आज मेरी तबियत कुछ गड़बड़ थी मैंने एक आचार्य से आग्रह किया कि वे कुछ देर मेरी कक्षा में रहें। आचार्य जी तैयार हो गये। जैसे ही वे मेरी कक्षा में पहुँचे, सभी बच्चे उन्हें आश्चर्य से देखने लगे। एक बच्चा रोनी-सी सूरत बनाते हुए बोला - "आचार्य जी, आपकी घंटी नही है।" आचार्य जी बोले - "अरे, तो क्या हुआ? आज तो हम्हीं पढ़ायेंगे।" "नहीं आचार्य जी, आप जाइये। अभी वो आचार्यजी आयेंगे।" - सभी बच्चे एक साथ चिल्लाये।

     अब चौकने की बारी आचार्य जी की थी। उन्होंने पूछा - "कौन आचार्यजी।" 

    एक बच्चे ने कहा - "डंटा वाले आचार्य जी।" आचार्यजी अभी कुछ सोच रहे थे कि मैं वहाँ अपने हाथ में छड़ी लिए पहुँचा। आचार्यजी ने मेरी छड़ी को ध्यान से देखा और कहा - "आप ही हैं डंडा वाले आचार्य जी?" तब आचार्य जी ने मुझे सारी घटना बताई।

    मैंने कहा - डंडा वाले आचार्य जी से बच्चे नहीं डरते हैं, बिना डंडा वाले आचार्य जी से डरते हैं। बच्चे आचार्य का डंडा ही नहीं देखते उनके भाव को भी पहचानते हैं। पर औरों को केवल डंडा ही दिखता है।

शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

विद्या ददाति विनयम्

विद्या विनय देती है। विद्या का अर्थ है किसी कला की जानकारी। विनय का अर्थ है नम्रता या घमंड का अभाव। विद्या हमें झुकना सिखाती है। मूर्ति कला, चित्रकला, पाककला, गाने की कला आदि कलाओं में बड़ा सावधानीपूर्वक काम करने की जरूरत है। "मैं जानता हूँ" - ऐसी भावना रखने वाले किसी भी विद्या मे निपुण नहीं हो सकता। यानी "विद्या ददाति विनयम्"।

जो नम्र है, उसकी सभी इज्जत करते हैं। जिसे घमंड है, सभी उसकी निन्दा करते हैं। इसलिए सभी नम्र लोगों का साथ चाहते हैं और घमंडी लोगों से दूर रहना चाहते हैं। यही पात्रता है। यानी - "विनयाद्याति  पात्रत्वाम" ।

जिसकी इज्जत होती है, उसपर विश्वास होता है। उसे लोग अनेक प्रकार की जिम्मेदारी सौंपते हैं। उन्हें अनेक प्रकार के काम सीखने तो मिलता है। काम करने पर धन की प्राप्ति होती है। अतः पात्रता से धन प्राप्त होता है। यानी "पात्रत्वाद् धनमाप्नोति"।

जब पास में धन हो तो हम दान-पुण्य कर सकते हैं। यानी "धनाद्धर्मं "।

अधर्म यानी दूसरे को दुख देना। दूसरे को दुख देने में अपने को भी सुख होनेवाला नहीं है। अतः सुख तो धर्म से ही होता है। अर्थात्

विद्या ददाति विनयमं विनयाद्याति पात्रत्वाम्।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्।।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

खुशी

मैं पेड़ को नीचे खड़ा हूँ । सामने की एक दुकान पर एक

वृद्ध व्यक्ति अपने नन्हें पोते को पाँच रूपये का रसगुल्ला खिला रहा है। पोता बड़ा खुश है और बड़े मजे ले-लेकर खा रहा है। कुछ लोग उस बच्चे की क्रिया-कलाप को देखकर खुश हैं।

बगल में सायकिल दुकान है। मिस्त्री ने सायकिल मरम्मत कर दी है। सायकिल वाले ने खुश होकर उसे शायद कुछ ज्यादा ही पैसे दे दिये या पुराना हिसाब भी चुकती  कर दिया होगा। दुकानदार भी बड़ा खुश नजर आ रहा है ।

कुछ विद्यार्थी सड़क पर आपस में बड़े जोश में बातें करते हुए आ रहे हैं। वे भी बड़े खुश नजर आ रहे हैं। हाव-भाव से लगता है वे परीक्षा देकर आ रहे हैं और परीक्षा अच्छी गयी है।

अचानक मेरी बुद्धि चकराने लगी। आखिर खुशी क्या चीज है?