बुधवार, 30 जनवरी 2013

मीडिया का प्रभाव


कक्षा प्रथम में मैंने प्रवेश किया। उपस्थिति लेने के बाद सभी छात्र-छात्राओं को मैंने अपने स्मरण से एक कविता लिखने को कहा। सभी विद्यार्थी कविता लिखने लगे। मैंने देखा एक बच्ची लगातार मेरी ओर कुछ परेशान निगाहों से लगातार देख रही है। मैंने देखा वह कक्षा में नई थी। मैं उसके पास गया। मैंने पूछा - "क्या हुआ?"
"मुझे कविता नहीं आती।"
"तो एक गाना लिख दो।"
"मुझे नहीं आती।"
"क्यों? टी.वी. देखती हो, न।"
"जी।"
"उसमें गाना देता है, न। उसी से एक गाना लिख दो।
बच्ची ने कुछ सोचा, फिर लिखने में मगन हो गई। मैं आगे बढ़ गया।
कुछ देर बाद वह अपनी कापी लेकर मेरे पास आई। मैंने देखा उसने गाने की एक पंक्ति लिखि थी -
"मटरू की बिजलो का मन डीला"
इसमें गलतियाँ कम थीं। मैंने कहा -
"दूसरी पंक्ति लिखो।"
"नहीं आती।"
"तो दूसरा गाना लिख दो।"


वह अपनी कापी लेकर अपने बेंच पर चली गई और कुछ लिखने लगी। थोड़ी देर बाद वह फिर आई। मैं उसकी कापी देखने लगा। उसने दूसरी पंक्ति लिखी थी -
"चिकनी चमेली छुप के अकेली पौवआ चढ़ा के आइ।"

मैं उसकी वर्तनी को देख बड़ा खुश हुआ कि उसने बड़ी कम गलतियाँ की थी। पर आश्चर्य भी हुआ कि एक बच्ची को किताब की अन्य कविताएँ क्यों याद नहीं आई।
मीडिया वाले कहते हैं कि मीडिया से किसी को बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। पर मिड़िया वाले ये क्यों नहीं सोचते कि ऐसे रसिक गानों की जगह बालोपयोगी गानों की भरमार होती, जैसे - हम नन्हें मुन्ने हों चाहे पर नहीं किसी से कम..., हम भी अगर बच्चे होते नाम हमारा होता ..., लकड़ी की काठी काठी का घोड़ा..., चंदा चमके चमचम, चीखे चौकन्ना चोर... आदि, तो वह बच्ची इनमें से जरूर कोई एक लिखती। पर अब ऐसे गाने दिखते ही नहीं। क्या मीडिया वालों का इन मासूम बच्चों के प्रति कोई फर्ज नहीं बनता।

शनिवार, 12 जनवरी 2013

सामान्य जीवन


यह मेरा प्रथम ब्लॉग का आरम्भ है। इस ब्लॉग में सामान्य जीवन से सम्बंधित विचार कर सामान्य लोंगों को एक सूत्र में पिरोना चाहता हूँ। आपसब के सहयोग से आशा है मै इस कार्य में जल्द ही सफल हो जाऊंगा।