मैं अपनी सायकिल पर रास्ते मेंं धीरे-धीरे चला जा रहा था। तभी मैंने बायीं ओर से किसी अभिभावक की आवाज सुनी। मैंने सायकिल रोक दी और उस ओर देखने लगा। एक पुराने अभिभावक मुझे हाथ हिलाते हुए पुकार रहे थे - "आचार्य जी, रुकिए। आप छठ पूजा करते हैं।"
"नहीं।" मैंने कहा, "क्यों?"
"मैंने सोचा आप पूजा करते होंगे तो कुछ गुगल (एक प्रकार का फल, जिसकी जरूरत छठ पूजा में पड़ती है) ले जाते।"
"नहीं, हमलोग तो स्वयं नहीं करते। पर अगल-बगल मदद करते हैं।" मैंने कहा।
"सायकिल रिप्लेश कीजिएगा।" कोई पीछे से चिल्लाया।
मैंने पीछे मुड़कर देखा। तबतक वह बहुत आगे निकल चुका था। दो-साथियों के साथ मेरा पुत्र भी सायकिल पर जा रहा था।
"कौन था?" अभिभावक ने पूछा।
"मेरा बेटा अपने साथियों के साथ था।"
अभिभावक थोडी़ देर के लिए शांत हो गए। मैंने उनके आँखों में अनेक प्रकार के प्रश्न आते-जाते देखे। कुछ क्षणों बाद अपने पर नियंत्रण करते हुए उन्होंने कहा -
"हाँ, आज का समय बहुत बदल चुका है। अब आज के लड़कों को कुछ कहा भी नहीं जा सकता।"
मै उनके भावों को समझने की कोशिश कर रहा था।
उनकी चिंता भी स्वभाविक थी। उनके दो बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा मैंने ही प्रदान की थी। उनके दोनों बच्चे अब जवान हो चुके थे। दोनों अब अपने पैरों पर खड़े हो चुके थे। दोनों ही बडे़ सुशील हैं। मुझे आज उनपर गर्व है।
इस ब्लॉग में सामान्य जीवन से सम्बंधित विचार कर सामान्य लोंगों को एक सूत्र में पिरोना चाहता हूँ। आपसब के सहयोग से आशा है मै इस कार्य में जल्द ही सफल हो जाऊंगा।
शनिवार, 21 नवंबर 2015
आज का समय
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