रविवार, 5 मई 2013

अंतिम लक्ष्य


ऋषि दाण्डायन ने विश्व को जीतने की चाह रखने वाले सिकन्दर से पूछा – “क्या चाहते हो?”
सिकन्दर ने कहा – “विश्व को जीतना चाहता हूँ।”
दाण्डायन – “विश्व को जीतने के पश्चात क्या करोगे?”
सिकन्दर – “उसके बाद शांति से जीवन बिताना चाहता हूँ।”
दाण्डायन – “शांति से तो मैं अब भी हूँ। फिर तुम मेरी तरह जीवन बिताना सीख लो।”

आज भी हम भ्रम में पल रहे हैं। सुख के लिए भागे-भागे फिर रहे हैं। पर पता नहीं सुख कहाँ है, किसमें है?
कुछ लोग धन को सुख का स्रोत समझ रहे हैं। धन संग्रह के लिए अच्छे-बुरे सभी कर्म कर रहे हैं। धन के बल पर अपनी संतानों के लिए हर प्रकार की सुविधा जुटाई जाती है। ताकि बच्चों को किसी प्रकार का दुख न हो। पर संतान सुख से वंचित हो रहे हैं। संतान मनमौजी हो गए हैं। संतानों के मन में माता-पिता के प्रति आदर का भाव नहीं। बड़े होते ही माता-पिता को छोड़ अलग बसेरा बना लेते हैं। क्या यही सुख है?

बीबी के लिए नौकर-चाकर, घर, गाड़ी, सोफे, ए.सी. आदि जुटाये गये हैं। बीबी को आराम मिलने से वह इतनी मोटी हो गई है कि उससे दो कदम भी चला नहीं जाता। साल भर से बिस्तर पर ही पड़ी है। शौचादि क्रियायें भी दाई विस्तर पर ही कराती है। क्या यही सुख है?

अपना भी स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। माहौल बिगड़ रहा है। आदत बिगड़ रही है। पर आराम नहीं कर सकते। दवा ले-लेकर काम में जुटे रहते थे। अब गंभीर रोगी हो कर विस्तर में पड़े गये। अब भोजन में तेल-मशाला मना हो गया है। केवल उबला हुआ भोजन ही करना है। मीठा नहीं खाना है। हमेशा बिस्तर पर पड़े रहना है। क्या यही सुख है?

दूसरी ओर एक गरीब व्यक्ति है। उसे सुख और दुख की परिभाषा भी मालूम नहीं, आपसे बातें करते हुए पल में वह हँसकर कहता है - "बाबू, सब मालिक की दुआ है।"
पत्नी झोंपड़ी दरवाजे से झांककर आवाज देती है - "मुन्ना के बाबू, मुन्ना भूख से रो रहा है। इसको भी साथ लेते जाइए। उधर ही कुछ खिला दीजिएगा।"
वह गरीब मजदूर हँस कर आपसे कहता है - "चलता हूँ बाबू। काम पर नहीं जाऊँगा तो आज खाना नहीं मिलेगा।" फिर वह अपने बच्चे का हाथ पकड़कर चल पड़ता है।

इतने अभाव के बाद भी इस गरीब मजदूर का हँसता-मुस्कुराता चेहरा देखकर मुझे लगता है एक अमीर की अपेक्षा वही गरीब सुखी है।

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