गुरुवार, 27 जून 2013

समूह की आवश्यकता

     आजकल प्रांतवाद, जातिवाद, कट्टरवाद, साम्यवाद आदि से अनेक समूह बन गये हैं। बात-बात में यह चर्चा होती है कि स्वार्थी और भ्रष्ट लोग ही इंसानों को अलग-अलग समूहों में बाँट कर या आपस में लड़ाकर उनपर राज करते हैं। फिर भी समूह को हम छोड़ नहीं सकते। इंसानों के अच्छे समूह से हम जुड़े रहना चाहते हैं। क्योंकि उन समूहों से हमें किसी-न-किसी रूप में लाभ मिलता है। शादी-ब्याह के अवसरों पर अपने सगे-सम्बन्धी, मित्र, मजदूर आदि का समूह के आधार पर व्यवहार किया जाता है। सदियों से चली आ रही धार्मिक, सामाजिक, जाति, कुल, गोत्र के आधार पर भी समूहों को अलग-अलग किया गया है।
      कुछ जानना है या कुछ सीखना है तो समूह बनाकर अधययन करना आसान होता है। सामानों का समूह की जानकारी हो तो सजाकर रखना आसान होता है। सामजिक वातावरण में अपना अपना अस्तित्व बचाने, कायम रखने और विकास करने के लिए भी समूह की आवश्यकता पड़ती है।
     विल गेट्स, रिलायन्स, टाटा और भी अनेक प्रकार के नेटवर्किंग के अनेक कार्यक्रम हैं, जिन्होंने अपना समूह बनाया और अपना अस्तित्व कायम किया।
     समूह बनाना तो सही है, पर आसान नहीं। समूह बनाने के लिए सबसे पहले उद्देश्य की आवश्यकता होती है। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधन चाहिए। तीनों प्रकार के साधन - प्राकृतिक, मानव-निर्मित और ऐसे लोग जो आपके उद्देश्य पूर्त्ति में सहायक हो सकें। सभी साधनों के  लिए धन अनिवार्य है। यह भी सत्य है कि कभी साधनों के उपयोग से धन की प्राप्ति होती है और कभी धन खर्च करने पर साधन उपलब्ध हो सकते हैं। इसलिए जो सरलता से प्राप्त हो जाए पहले उसे ग्रहण करें। फिर उनसे उचित व्यवहार रखते हुए उसके सहयोग से दूसरे साधन को प्राप्त करने का उपाय विचार करें। इसी प्रकार धीरे-धीरे अपने उद्देश्य को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करें।
     तीनों प्रकार के साधनों में तीसरे प्रकार का साधन यानी ऐसे लोग जो आपके उद्देश्य पूर्ति में सहायक हों, बड़ा महत्त्वपूर्ण है। पहले के दो साधन (प्राकृतिक एवं मानव निर्मित) की कुछ निश्चित मर्यादायें होती हैं। जबकि मानव बुद्धिमान हो सकता है, बेवकूफ भी। मानव शिक्षित हो सकता है, अशिक्षित भी। मानव ईमानदार हो सकता है, बेईमान भी। इसलिए इस साधन पर निरंतर दृष्टि रखना अनिवार्य हो जाता है।
     शायद इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर वर्णाश्रम की कल्पना की गई होगी। वर्णाश्रम के आधार पर उनका लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा और अन्य संस्कार अपने आधार पर किया गया होगा। अधिक संवेग प्रदर्शित करने के लिए मुँह से अनायास ही निकल जाता होगा - " यदि मैंने ऐसा नहीं किया तो ........... का बच्चा नहीं।" उन्हें अपने पर इसलिए इतना भरोसा है कि वे किसी जाति या कुल से जुड़े हुए हैं। "रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई।" ऐसा कहते हुए हम अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। अपने कुल पर इतना भरोसा है तो अपने कुल के लोगों पर भी अन्य की अपेक्षा अधिक भरोसा होता है। अपने परिवार पर अन्य परिवार की अपेक्षा अधिक भरोसा होता है।
     इस प्रकार हम देखते है कि हर कार्य में समूह की आवश्यकता होती है। समूह में ही हमारा विकास होता है और अपना अस्तित्व कायम करने की क्षमता होती है। चाचा नेहरू और लालू जी ने भी अपना अस्तित्व इसी आधार पर कायम किया।
     अंत में मैं एक बात आवश्यक रूप से कहना चाहता हूँ। समूह की अनिवार्यता तो है, पर अच्छे विचारों और कार्यों के लिए। परिवार, समाज, देश व विश्व की प्रतिष्ठा के लिए। ऐसे समूह बनाने की शिक्षा परिवार से ही आरंभ होती है। घर में सभी सदस्यों के साथ प्यार से रहें, आनंदपूर्वक बातचीत करें, गम्भीरता से विचार करें, मिलजुलकर योजना बनायें, सुख-दुःख में भागी बने और समूह को साथ लेकर चलने का अभ्यास करें। फिर पास-पड़ोस में भी इसी प्रकार का वातावरण बनायें। इसी प्रकार आगे बढ़ते जाएँ और सारे अंतरिक्ष में छा जाएँ। यही मेरी मनोकामना है।