सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

संस्कार

मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः।।
"जो दूसरे की पत्नि को माता के समान, दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले के समान देखता है और सभी जीवों में स्वयं को देखता है वही पण्डित है।"
पृथ्विव्यां त्रिणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढै:पाषाण खण्डेषु रत्नसंज्ञा विधियते।।
पृथ्वी में तीन ही रत्न हैं - जल, अन्न और मीठे वचन। पर मूर्ख लोग पत्थरों के टुकड़ों (हीरा, मोती, पन्ना आदि) को रत्न का नाम देते हैं।

2 टिप्‍पणियां:

  1. Pls, give the exact source with sholk no. and chapte no. form the Bhagavad-Gita.

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  2. बन्धू, यह हमने सातवीं कक्षा के संस्कृत की पुस्तक में पढ़ा था। इसलिए इसे स्वयं ही गूगल में आप खोज सकते हैं। मुझे बस इतना मालूम है कि यह चाणक्य नीति का श्लोक है।

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