मंगलवार, 31 अक्तूबर 2023

बदलते परिभाषा

परिभाषा बदलती रहती है। कभी "लुंचन" एक आदरणीय संन्यासी होता था, पर आज लुच्चा एक घृणित व्यक्ति को कहा जाता है। कभी "हीरो" किसी वीर पुरुष को कहा जाता था, पर आज एक नकलची व्यक्ति को कहा जाता है। उसी प्रकार आज प्रेम, रिश्ते, मां, बाप, पंडित, बाबा आदि की परिभाषा बदल गई है।

इसी प्रकार माता-पिता, भाई-बहन, बन्धु-सखा आदि का भी एक पद (rank) के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। यह पद विशेष गुणों पर आधारित था। जैसे - माता यानी माँ के समान ध्यान रखने वाली, पिता यानी पिता के समान आपूर्ति करने वाला आदि।

यदि हीरो (वीर) की बात करें, तो ऐसा वीर पुरुष का ध्यान किया जाता था जिसे आदर्श माना जाता था। पर आज उसे हीरो कहा जाता है जो एक बन्दर की तरह कभी इसकी नकल करता है, कभी उसकी। जिसका न अपना कोई आदर्श है, न दूसरों का कोई आदर्श मानता हो।

"प्रेम" शब्द का भी यही हाल है। माता-पिता अपने बच्चों से प्रेम करते हैं। इसलिए वे अपने बच्चों के कल्याण के लिए सारा जीवन समर्पित रहते हैं। परंतु आज प्रेम का अर्थ है अपनी कामना की पूर्ति के लिए दूसरों को अपना गुलाम बनाने की कोशिश करना। यही कारण है कि आज माता-पिता से प्रेम न होकर एक पराये, अपरिचित विपरीत लिंगी से ही प्रेम होता है।

नम्रता का अर्थ है कि दूसरों को और उनके विचारों को आदर देना। दूसरों का दुःख-दर्द समझना। अपने बुद्धि, विवेक, सुख, समृद्धि का प्रदर्शन नहीं करना। पर आज Sorry, Please, Thank you से नम्रता का प्रदर्शन किया जाता है। उसके पीछे का भाव से कोई मतलब नहीं है। किसी को धक्का मारो और Sorry कह दो और आगे बढ़ जाओ। अगर कोई कुछ कहे तो डांटकर जोर से चिल्लाओ - "सॉरी कहा न!"। क्या यह नम्रता है? एक तो हम सम्हलकर चलते हैं। हमेशा यही कोशिश में रहते हैं कि किसी को हमसे धक्का न लगे। फिर भी किसी प्रकार गलती हो गई और धक्का लग गया तो मुँह से निकलता है - "आह।" और तुरत उस व्यक्ति की ओर चेहरे पर पश्चाताप लिए देखने लगते हैं। उस व्यक्ति के क्षमा करने तक प्रतीक्षा करते हैं। जब वह व्यक्ति - "कोई बात नहीं।", ऐसा कहता है तब मन को संतोष मिलता है। क्या है नम्रता?

आदर क्या है? रामायण में राम अपने पिता के वचन को पूरा करने हेतु स्वयं को समर्पित करते हुए नम्र आवाज में कहते हैं - "पिताजी, हमें वन जाने की आज्ञा दीजिए।" - यह है पिता के प्रति आदर। महाभारत में दूर्योधन कहता है - "पितामह, क्षमा करें। द्रौपदी को हमने जुए में जीता है। इसलिए हम इसके साथ जो भी व्यवहार कर सकते हैं।" क्या यही है पितामह के प्रति आदर। इसी प्रकार आज लोग ऐसा कहते हुए देखे जाते हैं - "मैं आपका बहुत आदर करता हूँ। आप मेरे रास्ते से हट जाइए। वरना...." यह कैसा आदर है?

सेवा का अर्थ आज नौकरी या नेतागिरी ही है। दोनों ही जगह व्यवसाय से मतलब है। यानी लेन-देन। एक हाथ से दो, दूसरे हाथ से लो। ऐसी अवस्था में पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य आदि के बीच पुराना सेवा भाव कहाँ रह पायेगा? अर्थात आज सेवा का संबंध केवल धन से है।

इन परिभाषाओं से आप किन परिभाषा को मान्यता देंगे, ये आप पर निर्भर करता है। जैसी मान्यता आप देंगे, वैसा ही समाज आपको मिलेगा। इसलिए कैसा समाज आप चाहते हैं, आप स्वयं निर्णय करें।