बुधवार, 21 अगस्त 2013

रक्षाबंधन



रक्षाबंधन का त्योहार हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। सामान्य रूप से इसे भाई-बहन के स्नेह- प्रेम का त्योहार माना जाता है। परन्तु यह त्योहार अनेक भावनात्मक रिश्ते से बँधा होता है जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से भी पार कर जाता है। रक्षाबंधन में श्रावण पूर्णिमा का त्योहार भी जुड़ा होता है। यह उपासना और संकल्प का अद्भुत समन्वय कराता है।

रक्षाबंधन में राखी या रक्षासूत्र का महत्व होता है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर सोने-चाँदी जैसी मँहगी वस्तु की भी हो सकती है।

इस दिन सभी बहने अपने भाई को दाहिने हाथ में राखी बाँधकर, माथे पर तिलक लगाकर और आरती उतार कर उनके

दीर्घायु होने की कामना करती हैं। बदले में भाई उसकी रक्षा का वचन देता है। ऐसा माना जता है कि रंग-बिरंगे रेशमी धागों का यह त्योहार भाई-बहन के प्यार को अटूट बंधन से बाँधता है। यह पर्व भाई-बहन तक ही सीमित नहीं है। इस पर्व में ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित संबंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को ) भी बाँधी जाती है।

शास्त्रों में कहा गया है - इस दिन अपराह्न में रक्षासूत्र का पूजन और उसके उपरांत रक्षाबंधन का विधान है। यह रक्षाबंधन राजा को पुरोहित द्वारा, यजमान को ब्राह्मण द्वारा, भाई को बहिन द्वारा और पति को पत्नी द्वारा दाहिनी कलाई पर किया जाता है।

संस्कृत की उक्ति के अनुसार -
जनेन विधिना यस्तु रक्षाबंधनमाचरेत। स सर्वदोष रहित, सुखी संवत्सरे भवेत्।।

अर्थात इस प्रकार विधिपूर्वक जिसके रक्षाबंधन किया जाता है वह संपूर्ण दोषों से दूर रहकर संपूर्ण वर्ष सुखी रहता है। 


रक्षाबंधन वास्तव में स्नेह, शांति और रक्षा बंधन है। इसमें सबके सुख और कल्याण की भावना निहित है। वर्तमान काल में परिवार में सभी पूज्य और आदरणीय लोगों को रक्षासूत्र बाँधने की परंपरा भी है। वृक्षों की रक्षा के लिए वृक्षों को रक्षासूत्र तथा परिवार की रक्षा के लिए माँ को रक्षासूत्र बाँधने के दृष्टांत भी मिलते हैं।

रक्षाबंधन की लोकप्रियता कब प्रारंभ हुई यह कहना तो कठिन है, पर समय-समय पर इसके प्रेरक उदाहरण अवश्य मिलते हैं।

स्कन्ध पुराण, पद्म पुराण और श्रीमद्भागवत आदि में रक्षाबंधन के अनेक प्रसंग मिलते हैं। दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पू्र्ण किया। इन्द्र और देवताओं को स्वर्ग का राज्य छिने जाने का भय हो गया। उन्होंने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। भगवान ने वामनावतार के रूप में राजा बलि से तीन पग भूमि माँगी। दो ही पग में सारा आकाश और पृथ्वी नाप लिया। तीसरा पग के लिए पूछे जाने पर बलि ने अपना सिर आगे कर दिया। भगवान ने उसपर प्रसन्न होकर उसे रसातल में रहने की जगह दी और उससे वरदान माँगने को कहा। बलि ने भगवान को हमेशा अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान के घर न लौटने पर मात लक्ष्मी को चिंता हो गईं। तब नारद जी के कहने पर बलि को रक्षासूत्र बाँधकर माँ लक्ष्मी ने अपना भाई बना लिया और पति को माँग लिया। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि ही थी। महाभारत की कथा है कि ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के कहने पर अपनी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्योहार मनाया था। अन्य कथाओं में द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बाँधने के उल्लेख भी मिलते हैं।

ऐतिहासिक उदाहरणों में जब राजपूत लड़ाई पर जाते थे तो महिलाएँ उनके माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के बाद हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। उन्हें विश्वास था कि यह धागा उन्हें विजयश्री अवश्य दिलायेगा। मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा हमला होने की सूचना मिली तो रानी कर्मावती ने मुगल बादशाह को राखी भेजी और सहायता माँगी। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी मेवाड़ पहुँच कर रानी कर्मावती और मेवाड़ की रक्षा की। एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के जीवनदान के लिए हिन्दु राजा पुरु को राखी बाँधकर अपना भाई बनाया। उसके बदले राजा पुरु ने सिकन्दर को जीवनदान दिया।

इस प्रकार यह त्योहार परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना से आरंभ हुआ। कालांतर में यह लोकप्रिय भी हो गया। रक्षाबंधन हमें एक दूसरे से आत्मीयता और स्नेह के बन्धन से बाँधता है। यह पर्व सामाजिक, पारिवारिक एकसूत्रता की दृढ़ता प्रदान करता है। इस बहाने प्रतिवर्ष बहनें अपने सगे ही नहीं अपितु दूरदराज के रिश्तों के भाइयों को घर जाकर राखी बाँधती हैं या राखी भेजकर अपने स्नेह का नवीनीकरण करती रहती हैं। दो परिवारों और कुलों का संबंध को दृढ़ता प्रदान करता है। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच में रक्षा और सहायता की भावना जागृत करता है।

यह त्योहार आज के आधुनिक फ्रेंडशिप से बहुत ऊपर है। अतः इस त्योहार का सिद्धांत और भावना को समझते हुए इसे मनाया जाय तो फ्रेंडशिप जैसे वाहियात और संस्कारविहीन उत्सवों से छुटकारा मिल सकता है।

गुरुवार, 27 जून 2013

समूह की आवश्यकता

     आजकल प्रांतवाद, जातिवाद, कट्टरवाद, साम्यवाद आदि से अनेक समूह बन गये हैं। बात-बात में यह चर्चा होती है कि स्वार्थी और भ्रष्ट लोग ही इंसानों को अलग-अलग समूहों में बाँट कर या आपस में लड़ाकर उनपर राज करते हैं। फिर भी समूह को हम छोड़ नहीं सकते। इंसानों के अच्छे समूह से हम जुड़े रहना चाहते हैं। क्योंकि उन समूहों से हमें किसी-न-किसी रूप में लाभ मिलता है। शादी-ब्याह के अवसरों पर अपने सगे-सम्बन्धी, मित्र, मजदूर आदि का समूह के आधार पर व्यवहार किया जाता है। सदियों से चली आ रही धार्मिक, सामाजिक, जाति, कुल, गोत्र के आधार पर भी समूहों को अलग-अलग किया गया है।
      कुछ जानना है या कुछ सीखना है तो समूह बनाकर अधययन करना आसान होता है। सामानों का समूह की जानकारी हो तो सजाकर रखना आसान होता है। सामजिक वातावरण में अपना अपना अस्तित्व बचाने, कायम रखने और विकास करने के लिए भी समूह की आवश्यकता पड़ती है।
     विल गेट्स, रिलायन्स, टाटा और भी अनेक प्रकार के नेटवर्किंग के अनेक कार्यक्रम हैं, जिन्होंने अपना समूह बनाया और अपना अस्तित्व कायम किया।
     समूह बनाना तो सही है, पर आसान नहीं। समूह बनाने के लिए सबसे पहले उद्देश्य की आवश्यकता होती है। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधन चाहिए। तीनों प्रकार के साधन - प्राकृतिक, मानव-निर्मित और ऐसे लोग जो आपके उद्देश्य पूर्त्ति में सहायक हो सकें। सभी साधनों के  लिए धन अनिवार्य है। यह भी सत्य है कि कभी साधनों के उपयोग से धन की प्राप्ति होती है और कभी धन खर्च करने पर साधन उपलब्ध हो सकते हैं। इसलिए जो सरलता से प्राप्त हो जाए पहले उसे ग्रहण करें। फिर उनसे उचित व्यवहार रखते हुए उसके सहयोग से दूसरे साधन को प्राप्त करने का उपाय विचार करें। इसी प्रकार धीरे-धीरे अपने उद्देश्य को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करें।
     तीनों प्रकार के साधनों में तीसरे प्रकार का साधन यानी ऐसे लोग जो आपके उद्देश्य पूर्ति में सहायक हों, बड़ा महत्त्वपूर्ण है। पहले के दो साधन (प्राकृतिक एवं मानव निर्मित) की कुछ निश्चित मर्यादायें होती हैं। जबकि मानव बुद्धिमान हो सकता है, बेवकूफ भी। मानव शिक्षित हो सकता है, अशिक्षित भी। मानव ईमानदार हो सकता है, बेईमान भी। इसलिए इस साधन पर निरंतर दृष्टि रखना अनिवार्य हो जाता है।
     शायद इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर वर्णाश्रम की कल्पना की गई होगी। वर्णाश्रम के आधार पर उनका लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा और अन्य संस्कार अपने आधार पर किया गया होगा। अधिक संवेग प्रदर्शित करने के लिए मुँह से अनायास ही निकल जाता होगा - " यदि मैंने ऐसा नहीं किया तो ........... का बच्चा नहीं।" उन्हें अपने पर इसलिए इतना भरोसा है कि वे किसी जाति या कुल से जुड़े हुए हैं। "रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई।" ऐसा कहते हुए हम अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। अपने कुल पर इतना भरोसा है तो अपने कुल के लोगों पर भी अन्य की अपेक्षा अधिक भरोसा होता है। अपने परिवार पर अन्य परिवार की अपेक्षा अधिक भरोसा होता है।
     इस प्रकार हम देखते है कि हर कार्य में समूह की आवश्यकता होती है। समूह में ही हमारा विकास होता है और अपना अस्तित्व कायम करने की क्षमता होती है। चाचा नेहरू और लालू जी ने भी अपना अस्तित्व इसी आधार पर कायम किया।
     अंत में मैं एक बात आवश्यक रूप से कहना चाहता हूँ। समूह की अनिवार्यता तो है, पर अच्छे विचारों और कार्यों के लिए। परिवार, समाज, देश व विश्व की प्रतिष्ठा के लिए। ऐसे समूह बनाने की शिक्षा परिवार से ही आरंभ होती है। घर में सभी सदस्यों के साथ प्यार से रहें, आनंदपूर्वक बातचीत करें, गम्भीरता से विचार करें, मिलजुलकर योजना बनायें, सुख-दुःख में भागी बने और समूह को साथ लेकर चलने का अभ्यास करें। फिर पास-पड़ोस में भी इसी प्रकार का वातावरण बनायें। इसी प्रकार आगे बढ़ते जाएँ और सारे अंतरिक्ष में छा जाएँ। यही मेरी मनोकामना है।

रविवार, 5 मई 2013

अंतिम लक्ष्य


ऋषि दाण्डायन ने विश्व को जीतने की चाह रखने वाले सिकन्दर से पूछा – “क्या चाहते हो?”
सिकन्दर ने कहा – “विश्व को जीतना चाहता हूँ।”
दाण्डायन – “विश्व को जीतने के पश्चात क्या करोगे?”
सिकन्दर – “उसके बाद शांति से जीवन बिताना चाहता हूँ।”
दाण्डायन – “शांति से तो मैं अब भी हूँ। फिर तुम मेरी तरह जीवन बिताना सीख लो।”

आज भी हम भ्रम में पल रहे हैं। सुख के लिए भागे-भागे फिर रहे हैं। पर पता नहीं सुख कहाँ है, किसमें है?
कुछ लोग धन को सुख का स्रोत समझ रहे हैं। धन संग्रह के लिए अच्छे-बुरे सभी कर्म कर रहे हैं। धन के बल पर अपनी संतानों के लिए हर प्रकार की सुविधा जुटाई जाती है। ताकि बच्चों को किसी प्रकार का दुख न हो। पर संतान सुख से वंचित हो रहे हैं। संतान मनमौजी हो गए हैं। संतानों के मन में माता-पिता के प्रति आदर का भाव नहीं। बड़े होते ही माता-पिता को छोड़ अलग बसेरा बना लेते हैं। क्या यही सुख है?

बीबी के लिए नौकर-चाकर, घर, गाड़ी, सोफे, ए.सी. आदि जुटाये गये हैं। बीबी को आराम मिलने से वह इतनी मोटी हो गई है कि उससे दो कदम भी चला नहीं जाता। साल भर से बिस्तर पर ही पड़ी है। शौचादि क्रियायें भी दाई विस्तर पर ही कराती है। क्या यही सुख है?

अपना भी स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। माहौल बिगड़ रहा है। आदत बिगड़ रही है। पर आराम नहीं कर सकते। दवा ले-लेकर काम में जुटे रहते थे। अब गंभीर रोगी हो कर विस्तर में पड़े गये। अब भोजन में तेल-मशाला मना हो गया है। केवल उबला हुआ भोजन ही करना है। मीठा नहीं खाना है। हमेशा बिस्तर पर पड़े रहना है। क्या यही सुख है?

दूसरी ओर एक गरीब व्यक्ति है। उसे सुख और दुख की परिभाषा भी मालूम नहीं, आपसे बातें करते हुए पल में वह हँसकर कहता है - "बाबू, सब मालिक की दुआ है।"
पत्नी झोंपड़ी दरवाजे से झांककर आवाज देती है - "मुन्ना के बाबू, मुन्ना भूख से रो रहा है। इसको भी साथ लेते जाइए। उधर ही कुछ खिला दीजिएगा।"
वह गरीब मजदूर हँस कर आपसे कहता है - "चलता हूँ बाबू। काम पर नहीं जाऊँगा तो आज खाना नहीं मिलेगा।" फिर वह अपने बच्चे का हाथ पकड़कर चल पड़ता है।

इतने अभाव के बाद भी इस गरीब मजदूर का हँसता-मुस्कुराता चेहरा देखकर मुझे लगता है एक अमीर की अपेक्षा वही गरीब सुखी है।

भारत विकसित देश कब होगा?

"जानते है पिताजी, आज हमारे सर क्या बता रहे थे?" बेटी कुछ उदास आवाज में बोली।

मैंने उसका चेहरा ध्यान से देखा और उसे उत्साहित करने के लिए पूछा - "क्या?"

"सर बता रहे थे, अभी भी इण्डिया डेवलप्ड कंट्री नहीं है। यहाँ तक कि वर्लड के 200 टॉप कॉलेजों में भी इसका नाम नहीं है।"

बेटी के मन के उठते हुए भावों को मैंने पहचानने की कोशिश की। शायद यह एक हीन भावना थी।

मैंने कहा - "बेटा, असल में हमने अपना स्वाभिमान खो दिया है। हमें लगता है कि जब तक अंग्रेज अपने जूठन नहीं फेंकेगा, तब तक हमें भोजन ही नहीं मिलेगा। यानी हम अभी भी अंग्रेजों के गुलाम ही हैं। फिर गुलामों का देश विकसित कैसे हो सकता है?"

बेटी ने मुझे अजीब निगाहों से देखा और पूछा - "फिर यह देश कैसे विकसित हो सकता है?"

मैंने कहा - "हमें अपना, अपने समाज का और अपने देश का स्वाभिमान जगाना होगा। देखो, तुमने भी अपनी बातों को रखने में कई अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किया, जैसे - सर, इण्डिया, डेवलप्ड, कंट्री, वर्ल्ड, टॉप, कॉलेज आदि। जबकि इसके बदले हमारे पास भी अपने हिन्दी के सामान्य और प्रचलित शब्द हैं, जैसे - गुरूजी(आचार्य), भारत(हिन्दुस्तान), विकसित, देश, दुनिया(संसार), उत्तम, विश्वविद्यालय आदि। हमें लगता है हमारे पास मन के भावों को व्यक्त करने के लिए हिन्दी में शब्द ही नहीं हैं। इसी प्रकार हम हर बात के लिए अंग्रेजों के पीछे भाग रहे हैं। तो क्या अंग्रेजों के पीछे भागने से हम विकसित हो जाएंगे, या हमेशा उसके पीछे ही रहेंगे। कम से कम जो हमारे पास पहले से और पर्याप्त मात्रा में है उसके लिए तो अपना स्वाभिमान न खोयें। जब हम यह सीख जायेंगे तो भारत को विकसित देश होने में देर नहीं होगी।"

बेटी ध्यान से सुन रही थी। वह सिर हिलाने लगी, जैसे वह मेरी बात समझ रही हो।

लेकिन मुझे फिर भी संदेह ही था। भारत में पढ़े-लिखे, विद्वान लोगों में अनेक लोगों को यह बात आज भी समझ नहीं आयी है।

हमारे देश का नाम भा-रत है जिसका अर्थ है प्रकाश से परिपूर्ण। कभी भारत को विश्वगूरू का स्थान प्राप्त था। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला आदि विश्वविद्यालय की कहानी सभी जानते है। दुनिया भर के लोग यहाँ विद्याध्ययन के लिए आते थे। आततायी आक्रमणकारियों ने इसे नष्ट कर दी। फिर भी दुनिया के विभिन्न पुस्तकालयों में इसके प्रमाण मिलते हैं। जो संस्कृत के ग्रंथ भारत से लोप हो गए, वे विदेशी पुस्तकालयों में मिलते हैं। फिर भी हमें अपने पर गर्व क्यों नहीं होता?

रामायण और महाभारत, दोनो ही संसार के प्रचीनतम ग्रंथ हैं। दुनिया मानती है। इसमें आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं का एक साथ वर्णन है, जो आज तक दूसरे ग्रंथों में नहीं मिला। ऐसे ग्रंथों को पाकर हमें अपने ऊपर गर्व होना चाहिए।

मनुस्मृति दुनिया की पहली कानूनी पुस्तक है। दशमलव की जानकारी दुनिया को भारत ने ही दी। भारतीय पंचांग के आधार पर सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण की जानकारी प्राचीनतम है। भारतीय दर्शन का संपूर्ण संसार कायल है। फिर भी हम अंग्रेजों के पिट्ठू क्यों बने रहना चाहते हैं।

चिकित्सा विज्ञान में आयुर्वेद की पूरी जानकारी आज हमें भी नहीं है। रामदेव बाबा की कृपा से उस पर भी खोज जारी है। यह भी भारत की प्राचीन विधि है। हमें इस पर गर्व होना चाहिए।

अनेक प्रकार के धन-वैभव, मिट्टी, खनिज, जल, खाद्य, वनस्पति, जीव-जन्तु, मौसम से हमारी भारत भूमि समृद्ध है। इसका हमें गर्व होना चाहिए।

कला के क्षेत्र में अजन्ता-एलोरा की कलायें प्राचीनतम हैं। भारत के अशोक स्तम्भ, मीनाक्षी मंदिर, सूर्यमंदिर की कला और विज्ञान की कल्पना भी करें तो आज के लिए वे चुनौतियाँ हैं।

अपने संस्कार और संस्कृति पर भी हमें गर्व होना चाहिए। हमारे यहाँ के नाते-रिश्ते अटूट होते हैं। विदेशी संस्कृति में तो बेटे-बेटियाँ जवान होते ही माता-पिता को छोड़ अलग हो जाते हैं। पूजा-पाठ के कारण हमारे संस्कार परिष्कृत होते हैं। पाश्चात्य संस्कृति के अनुसार पार्टियों में गंदे गीत-नृत्य, राक्षसी भोजन आदि परोसे जाते हैं। नाते-रिश्ते को कैसे हैं पता नहीं। जरा विचार करें कि हमें कैसा संस्कार और कैसी संस्कृति चाहिए।

आज शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी का चलन बढ़ता ही जा रहा है। यदि शिक्षा अपनी मातृभाषा या हिन्दी में दी जाए तो हमारी ग्रहणक्षमता में वृद्धि हो सकती है। क्योंकि अंग्रेजी हमारी भाषा नहीं है। अंग्रेजी में शिक्षा पाने के लिए पहले अंग्रेजी सीखनी होगी। अंग्रेजी की पर्याप्त शब्दकोश याद करने होंगे। जबकि मातृभाषा में शिक्षा पाने के लिए घरेलू वातावरण से पर्याप्त शब्दकोश विकसित हो चुका होता है।

अतः हे भारतीयों! मत भूलो कि तुम उस ऋषि-महर्षियों की संतान हो, जिनसे संपूर्ण संसार आलोकित था। जिसके कारण इस भारतभूमि को भा-रत कहा गया। उस सनातन धर्म की अजर-अमर संस्कृति से सिंचित देव पुरुष हो, जिसके सामने सारा संसार नत मस्तक है। आज भारतीय मूल के लोगों ने दुनिया के कोने-कोने से हर क्षेत्र में अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित कर अपने स्वाभिमान को जगाने का हमें संदेश दे रहे हैं। अपनी भाषा, अपनी परम्परा, अपनी संस्कृति, अपने दर्शन से नाता जोड़कर गर्व का अनुभव करो। अपने को पहचानों। अपने स्वाभिमान को जगाओ। नव स्फूर्ति से परिपूर्ण होकर करवट बदलो। तभी भारत विकसित देश हो सकेगा।

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

दुष्कर्म का विरोध

इतने हो-हल्ला, जुलूस, रैली, गिरफ्तारियों, नियम-कानून बनाने के बाद भी दुष्कर्म बढ़ते ही जा रहे हैं। इससे सामान्य जनता को कुछ सीख तो लेनी ही चाहिए।

पहला यह कि आज कोई कानून हमारी सुरक्षा नहीं कर सकता। हाँ, हमारे साथ कुछ अत्याचार होने के बाद कागजी कारवाई के लिए कानून हमें परेशान करने आ सकते हैं।

दूसरा यह कि हम अपनी सुरक्षा खुद करें। इसके लिए हमें खुद तैयार होना होगा। कौन कैसा व्यक्ति है इसकी पहचान हमें होनी चाहिए। पहचानकर ही दोस्ती करनी चाहिए। कितना ही घनिष्ठ मित्र क्यों न हो, फिर भी उस पर चुपके से नजर अवश्य रखनी चाहिए। अपने शरीर और आत्मा से अपने को बलवान करना होगा। इसके लिए बजरंगबली को गुरू बनायें और हमेशा बजरंगबली की आराधना करें। इस दोहे को याद रखें -

श्री गुरुचरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार। वरनौ रघुवर विमल यश, जो दायक फल चार।
बुद्धिहीन तनु जानिकै, सुमिरहु पवन कुमार। वल, वद्घि, विद्या देहु मोहि हरहु क्लेश विकार।।

बजरंगबली हमें बल-बुद्धि-विद्या तो दें ही साथ ही हमारे मन में उपजने वाले क्लेश और विकार को भी दूर करें।

तीसरा हम सभी (यानी जो इस प्रकार का दुष्कर्म नहीं चाहते हैं) एकजुट हों। एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक मिलें। एक-दूसरे की राय लें। अपनी भाषा में सुधार करें। शालीन ढंग से बातचीत करना सीखें। फिल्मी और बाजारू ढंग से बातचीत न करें। अच्छी बात बोलें उसका प्रचार करें।अपने या दूसरे के दिमाग में आनेवाले बुरे विचारों पर रोक लगायें।

चौथा यह कि हमेशा अपने आमने-सामने चौकन्नी नजर रखें। जरा भी संदेह होने पर अपने आमना-सामने के लोगों और मित्रों बतायें। कुछ सामाजिक तरीके से निर्णय लें। फिर सरकारी तंत्र से सहायता लें।

मेरा यह सुझाव स्त्री-पुरुष, छोटे-बड़े सभी के लिए समान है। हमारा समाज हम से ही सुधरेगा। बजरंगबली हम सबकी रक्षा करें। जय बजरंगबली


शनिवार, 20 अप्रैल 2013

बाल मजदूरी

  अनेक वर्षों से बाल-मजदूरी को रोकने के प्रयास चल रहे हैं। सरकारी योजनाएं भी हैं। पर बाल-मजदूरी रोकना संभव नहीं दिखता। गरीब बच्चों को भी भूख लगती है, कपड़े चाहिए, खिलौने चाहिए और घर में भी कुछ सुख-सुविधाएँ चाहिए। उसे प्राप्त करने के लिए नियमित कुछ धनराशि चाहिए। इसके लिए उन्हें मजदूरी करना ही पड़ता है। सरकारी विद्यालय में भोजन और कपड़ा तो मिलता है पर घर की अन्य सुख-सुविधाओं का अभाव रहता ही है। घर के अन्य सदस्यों  पर कोई विचार नहीं होता। 
ऐसी स्थितियों में गाँधी जी का बुनियादी विद्यालय की कल्पना बड़ी अच्छी थी। बच्चों से बागवानी कराना, सूत कतवाना, चरखा चलवाना और साथ-साथ पढ़ाई भी कराना। सरकार को इन गरीब बच्चों के लिए ऐसे विद्यालयों पर ध्यान देना चाहिए, जिसमें मजदूरी के साथ-साथ पढ़ाई भी कर सकें। मजदूरी के लिए एक निश्चित धनराशि भी मिलेगी और सरकारी खातों से भोजन और कपड़े भी मिले। इस कल्पना में और सुधार कर 'रोजगार आधारित शिक्षा' का रूप भी दिया जा सकता है। इस प्रकार की योजना से सरकार अवश्य 60% जनता की भलाई कर सकती है।

बुधवार, 13 मार्च 2013

हे नारी

अति सर्वत्र वर्जयेत्
जगाओ हे नारी, तुम अपना अंतर
कोयला है बाहर, हीरा घर के अंदर।
करो दहलीज पार, याद रखो ये मंतर
हर अच्छी चीज रखो, पर्दे के अंदर।
गुलाब-काँटा, दाँत-जीभ का है जंतर
तलवार भी रहता है, म्यान के अंदर।
ध्यान करो हे नारी, अंतर-मंतर-जंतर
जगाओ हे नारी, तुम अपना अंतर।

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

बच्चों का स्कूली बस्ता

भारत में अनेकों शिक्षाविद् बच्चों के दिमाग पर बढ़ते हुए बोझ से चिंतित हैं। बच्चों का भारी बस्ता, बढ़ती हुई पुस्तकों की संख्या, सिलेबस – सभी समस्या घटाने के बजाय बढ़ा रही हैं। इस विषय पर समाचार-पत्र, टीवी में चिन्तन होता रहता है। पर परिस्थिति सुधरने की जगह और बिगड़ता हुआ ही प्रतीत होता है। अब तो CCE के तहत यह भी कह दिया गया है कोई बच्चा फेल न हो। पर क्या इससे समस्या सुलझ जाएगी?
बच्चों की शिक्षा के लिए जो समस्या शिक्षकों और अभिभावकों को भुगतना पड़ता है, उनकी एक लम्बी लिस्ट है। उनमें से कुछ निम्नांकित हैं –

बच्चों का बस्ता – मुख्य पुस्तक, वर्कबुक, सहायक पुस्तकें, कापियाँ – होम वर्क, क्लास वर्क, टिफिन, पेंसिल बॉक्स, वाटर बोतल, ज्योमेट्री बॉक्स आदि। सभी मिलाकर बस्ते का बोझ बच्चों के नाजुक कंधों के लिए सही नहीं है। फिर उन्हें जितनी पुस्तकें दी जाती हैं, उनमें 50% भी कोई बच्चा सीख नहीं सकता। परीक्षा तो पूरे पुस्तक में 10% की लेते हैं और बच्चों को कितने नम्बर आते हैं, सभी शिक्षक और अभिभावकों को भी पता है। तेज बच्चों को भी उस पूछे गए 10% प्रश्नों में शत-प्रतिशत नम्बर आये उसके लिए शिक्षक और अभिभावक को भी कितनी मेहनत मशक्कत करनी पड़ती है, यह भी किसी अभिभावक और शिक्षकों से छुपा नहीं है। फिर क्यों न कुछ पुस्तक या कुछ पाठ या कुछ विस्तार ही कम करके पुस्तकों के पन्ने ही कम कर दिए जाएँ।

पुस्तकों की संख्या – हर मुख्य पुस्तक के अलावा उसमें सहायक पुस्तकें भी जोड़ दी जाती हैं। इससे भी पुस्तकों की संख्या और भार बढ़ जाती है। जैसे – हिन्दी की मुख्य पुस्तक, व्याकरण की पुस्तक, वर्कबुक आदि। इनके साथ कापियों की संख्या भी बढ़ जाती हैं। यदि मुख्य पुस्तक में ही हर पाठ के साथ ही कुछ व्याकरण, वर्कबुक की बातें जोड़ दी जाए तो पुस्तक की संख्या कम हो जाएगी। पर पुस्तक मोटी हो जाएगी। इससे यह पता चलता है कि बच्चों के ऊपर कितना बोझ है। इसलिए पुस्तकों के पाठ भी कम करने होंगे। मेरे विचार से एक महीने के लिए एक पाठ ही पर्याप्त होगा। जैसे – पाठ पढ़ाना-समझाना, उनमें उनका प्रश्नोत्तर, उनमें आये शब्दों के अर्थ और व्याकरण समझाना आदि। इसी प्रकार गणित, विज्ञान के विषयों को भी समझना चाहिए।

सिलेबस – सिलेबस भी बच्चों के उम्र के आधार पर विचार करना चाहिए। छोटे बच्चों को मौखिक याद कराने पर वे आसानी से याद कर लेते हैं, पर लिखने या पढ़ने के लिए कहा जाए तो बड़ी कठिनाई होती है। अतः सिलेबस में छोटे बच्चों को अधिकांश मौखिक याद कराना चाहिए। जैसे – गिनती, पहाड़ा, परिभाषा, कवितायें, दोहे आदि। परीक्षा भी मौखिक रूप से उनकी क्रियाशीलता (Activity) के आधार पर लिया जाए। परीक्षा में कोई औपचारिकता आवश्यक नहीं।

बच्चे की उम्र – आजकल विद्यालयों और अभिभावक में सामंजस्य नहीं होने के कारण बच्चे की उम्र पर ध्यान नहीं है। कम उम्र के बच्चे ऊँची कक्षा में और अधिक उम्र के बच्चे नीचे की कक्षाओं में दिखते हैं। इससे भी कक्षा असंतुलित हो जाती है। परीक्षा की परिणामों को देखकर हम या तय कर लेते हैं कि यह बच्चा तेज है। इसलिए इस तेज बच्चे के आधार पर सिलेबस तैयार हो जाती है। परंतु यह देखना भूल जाते हैं कि उसकी उम्र अधिक है। उसके उम्र के हिसाब से उसकी अगली कक्षा का सिलेबस तैयार होना चाहिए।

शिक्षक की समस्या –अलग-अलग उम्र के बच्चों के कारण हर बच्चों से अलग-अलग व्यवहार करना कठिन होता है। अधिक उम्र के बच्चे कम परिश्रम से ही आगे बढ़ जाते हैं। वे कुछ नये की खोज करने लगते हैं। कम उम्र के बच्चों के लिए ज्यादा समय देना पड़ता है। उन्हें छोड़कर आगे बढ़ना उनकी उपेक्षा होगी। सिलेबस के अनुसार भी पढ़ाई पूरी करनी है। प्रत्येक पाठ पर ध्यान केन्द्रित करने पर सिलेबस पूरा नहीं हो पायगा। समय की कमी के कारण कुछ पाठ को महत्त्वहीन मानते हुए छोड़ना भी पड़ता है। इसलिए Important पाठ या महत्त्वपूर्ण प्रश्न निश्चित कर उसे पूरा करना पड़ता है।

अभिभावकों की समस्या – बच्चों की प्रगति के लिए अभिभावकों का भी पूर्ण सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। वरना सिलेबस शिक्षक मात्र से पूरा होने वाला नहीं है। विशेष रूप से कमजोर बच्चों को तो पढ़ाना और भी मुश्किल है। उनकी रुचि विषय की ओर रहती ही नहीं। उसे व्यक्तिगत समय देकर अच्छी तरह प्यार से उसकी कमजोरियाँ दूर करें, अभिभावक या शिक्षक से यह संभव नहीं हो पाता। मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा –  
“मैंने अपने बच्चे को तीन ट्यूशन दिया है। गणित और विज्ञान के लिए एक, अंग्रेजी के लिए एक और एक अन्य विषयों के लिए एक। फिर भी बच्चे में वांछित विकास नहीं हो रहा है।”
इन सभी समस्याओं से छुटकारा पाना है तो बच्चों का बस्ता का बोझ और सिलेबस बच्चों के उम्र के आधार पर तय करना पड़ेगा। अन्यथा मेरे विचार से इन बच्चों का बचपन छिन जायेगा और सही शिक्षा भी नहीं मिलेगी। बच्चों के संस्कार पर भी प्रभाव पड़ेगा। सरकार को इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और कुछ निश्चित योजना बनाकर कड़ाई से लागू करना चाहिए।

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

संस्कार

मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः।।
"जो दूसरे की पत्नि को माता के समान, दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले के समान देखता है और सभी जीवों में स्वयं को देखता है वही पण्डित है।"
पृथ्विव्यां त्रिणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढै:पाषाण खण्डेषु रत्नसंज्ञा विधियते।।
पृथ्वी में तीन ही रत्न हैं - जल, अन्न और मीठे वचन। पर मूर्ख लोग पत्थरों के टुकड़ों (हीरा, मोती, पन्ना आदि) को रत्न का नाम देते हैं।

सरस्वती पूजा



पिछले वर्षों की तरह इस बार भी शुक्रवार को वसंत पंचमी का उत्सव मनाया गया। वसंत पंचमी में माँ सरस्वती पूजा का आयोजन किया जाता है। इस पूजा का महत्त्व विद्यालयों में आवश्यक लगता है। विद्यालय के शिक्षक मिलकर विधिवत तैयारी करते हैं और पूरे श्रद्धा और धूमधाम के साथ विद्या की देवी की पूजा-अर्चना संपन्न करते हैं।

इस पूजा को अपने कॉलोनियों के आस-पास भी देखा जाता है। दो-चार लड़के आपस में मिलकर टोली बनाई और तैयारी शुरू कर दी। विभिन्न प्रकार की सजावट-रूपरेखा आदि देखने को मिलती है। इस पूजा में बच्चों का उत्साह देखते ही बनता है। इस पूजा में स्वतंत्रतापूर्वक अपनी-अपनी कल्पनाओं को साकार करने के लिए बच्चे की उत्सुकता देखते ही बनती है।

इस पूजा में सजावट और पूजा के साथ धूम-धडाका भी चाहिए। डिस्को, पॉप, रॉक, डीजे और पता नहीं क्या-क्या संगीत बजाये जाते हैं। इन संगीतों के ताल पर नाचते हैं। उछल-कूद करते हैं।
धीरे-धीरे पूजकों के दलों की संख्या बढ़ रही है। इससे मूर्त्तियाँ बनानेवाले कलाकारों को भी अच्छा-खासा रोजगार हो रहा है। पूजन सामग्री वाले दुकानदारों और पंडितों के भी वारे-न्यारे हो जाते हैं।

इस पूजा में कुछ खलनेवाली बातें भी हैं। पूजन टोलियों की संख्या अधिक होती जा रही है। इस बार मेरे घर तीन पूजन टोली पहुँच गई। सभी 51-51 रुपये की माँग कर रहे थे। पर जैसे-तैसे समझा-बुझाकर 10-10 रुपये देकर उन्हें विदा किया। हर महीने दो-तीन लोग किसी-न-किसी बहाने चंदा माँगने पहुँच जाते हैं। चंदा न देने पर लड़ाई-झगड़ा पर उतर आते हैं।

दूसरी खलनेवाली बात है – साउण्ड। माँ सरस्वती विद्या की देवी हैं। हमें उनसे विद्या की माँग नम्रतापूर्वक पूरी श्रद्धा से करनी है। विद्या की देवी को खुश करना है। उनके सामने ‘चिकनी चमेली...’, ‘सटा ले सैंया फेविकोल से...’ आदि गाना लगाकर भौंड़े तरीके से उछल-कूद करने से वे खुश हो जाएंगी? ऐसा प्रतीत होता है, हम पूजा नहीं, अपनी मौज-मस्ती के लिए पूजा का स्वाँग कर रहे हैं। ऐसे गानों को कानफाड़ू आवाज में लगाकर अपने भावी भविष्यों के संस्कार बिगाड़ रहे हैं। अगल-बगल के लोगों को ऊँजी आवाज से परेशान कर रहे हैं। आपस में वैमनस्य में वृद्धि कर रहे हैं। पर्यावरण दूषित कर रहे हैं।
ऐसे कार्यक्रमों (पूजा नहीं) से इन बच्चों को रोकना ही उचित है। सरस्वती पूजा अपने-अपने विद्यालयों में ही उचित है। वहाँ अपने शिक्षक के निर्देशन में पूजा करें। या अपने-अपने घर में अपनी शक्ति-क्षमता के आधार पर करें, चंदा माँगकर नहीं। इससे पूजा को सही स्वरूप मिल सकेगा।

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

मोह


बोकारो से धनबाद जानेवाली बस में मैं जा बैठा। सभी सीट भरी हुई थी। पर पीछे की सीट में खिड़की की बगल लाली सीट खाली थी। उस सीट पर मैं जा बैठा।

बस चल पड़ी। में खिड़की से बाहर का दृश्य देखने लगा। बोकारो शहर के क्वार्टर्स, फिर एयरोड्रम, फिर खेत और बाजार। एक-एक कर सामने की ओर से दृश्य आ रहे थे और तेजी से पीछे की ओर भाग रहे थे। ठीक मानव जीवन के समान - भविष्य, वर्तमान फिर भूत।

अचानक बस ने हिचकोले ली और थम गई। बस चास में रूककर सवारियों को उठा रही थी। बस यात्रियों से खचाखच भर गई और आगे बढ़ गई। एक औरत भीड़ में मेरे ही समीप खड़ी थी। उसके गोद में एक बच्चा था। बच्चा के कारण उसे खड़े होने में दिक्कत भी हो रही थी। उसने सभी यात्रियों की ओर निगाहें फिराई और मुझ पर आकर स्थिर हो गई। मुझे देखकर उसकी आँखों की एक आशा की किरण उभरी। उस औरत ने बड़े ही करुण निगाहों से मुझे देखा और कहा- "बाबू, जरा मेरे बच्चे को पकड़ लेंगे।

मुझे लगा जैसे मैं सस्ते में छूट गया। कहीं मुझसे स्वयं बैठने के लिए जगह माँगती तो...। मैंने तुरत उसके बच्चे को अपने गोद में ले लिया। वैसे भी बच्चे मुझे बड़े अच्छे लगते हैं। और किसे बच्चे अच्छे नहीं लगते?

मैंने बच्चे को अपने गोद में दोनों हाथों से घेरा बनाकर पकड़ रखा था। इस अवस्था में मेरी दाहिनी कुहनी खिड़की से बार-बार टकरा रही थी। जब-जब बस हिचकोले लेती कुहनी जोर से खिड़की से टकराती। बच्चा गोद से नीचे खिसक जाता। मैं बार-बार बच्चे को खींच कर गोद में रखकर संतुलन बनाने की कोशिश करता। इस कोशिश में मेरी कुहनी घायल हो चुकी थी। अचानक मेरे मन में एक बात आई। इस बच्चे से मेरा क्या संबंध है। मैं इसके लिए इतना क्यों परेशान हूँ। अपनी घायल कुहनी के दर्द को भूलकर बच्चे की सुरक्षा करते हुए मुझे आनंद क्यों हो रहा है। मैं समझ गया - मुझे उस बच्चे से मोह हो गया है।

बस एकबार फिर रूक गई थी। यात्री बाहर निकलने लगे थे। औरत भी बाहर निकलने के लिए तैयार होने लगी।
वह औरत बोली - "बाबू, अब हम यहीं उतरेंगे।"
मैंने हँसते हुए कहा - "बच्चे को भी ले जायेंगे?"
औरत ने मेरी बातों को हँसी में कहा - "आप ले जाएंगे, तो ले जाइए।"
मैंने कहा - "सचमुच!"
औरत थोड़ी सहम गई। फिर हँसते हुए मैंने उसे बच्चा दे दिया। औरत अपने बच्चे को लेकर बस से उतर गई। सारी सृ्ष्टि तो ईश्वर की बनाई हुई है। इसलिए सृष्टि की सारी वस्तुएँ तो उस ईश्वर की हैं। फिर किसी वस्तु से इतना मोह क्यूँ हो जाता है?

बुधवार, 30 जनवरी 2013

मीडिया का प्रभाव


कक्षा प्रथम में मैंने प्रवेश किया। उपस्थिति लेने के बाद सभी छात्र-छात्राओं को मैंने अपने स्मरण से एक कविता लिखने को कहा। सभी विद्यार्थी कविता लिखने लगे। मैंने देखा एक बच्ची लगातार मेरी ओर कुछ परेशान निगाहों से लगातार देख रही है। मैंने देखा वह कक्षा में नई थी। मैं उसके पास गया। मैंने पूछा - "क्या हुआ?"
"मुझे कविता नहीं आती।"
"तो एक गाना लिख दो।"
"मुझे नहीं आती।"
"क्यों? टी.वी. देखती हो, न।"
"जी।"
"उसमें गाना देता है, न। उसी से एक गाना लिख दो।
बच्ची ने कुछ सोचा, फिर लिखने में मगन हो गई। मैं आगे बढ़ गया।
कुछ देर बाद वह अपनी कापी लेकर मेरे पास आई। मैंने देखा उसने गाने की एक पंक्ति लिखि थी -
"मटरू की बिजलो का मन डीला"
इसमें गलतियाँ कम थीं। मैंने कहा -
"दूसरी पंक्ति लिखो।"
"नहीं आती।"
"तो दूसरा गाना लिख दो।"


वह अपनी कापी लेकर अपने बेंच पर चली गई और कुछ लिखने लगी। थोड़ी देर बाद वह फिर आई। मैं उसकी कापी देखने लगा। उसने दूसरी पंक्ति लिखी थी -
"चिकनी चमेली छुप के अकेली पौवआ चढ़ा के आइ।"

मैं उसकी वर्तनी को देख बड़ा खुश हुआ कि उसने बड़ी कम गलतियाँ की थी। पर आश्चर्य भी हुआ कि एक बच्ची को किताब की अन्य कविताएँ क्यों याद नहीं आई।
मीडिया वाले कहते हैं कि मीडिया से किसी को बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। पर मिड़िया वाले ये क्यों नहीं सोचते कि ऐसे रसिक गानों की जगह बालोपयोगी गानों की भरमार होती, जैसे - हम नन्हें मुन्ने हों चाहे पर नहीं किसी से कम..., हम भी अगर बच्चे होते नाम हमारा होता ..., लकड़ी की काठी काठी का घोड़ा..., चंदा चमके चमचम, चीखे चौकन्ना चोर... आदि, तो वह बच्ची इनमें से जरूर कोई एक लिखती। पर अब ऐसे गाने दिखते ही नहीं। क्या मीडिया वालों का इन मासूम बच्चों के प्रति कोई फर्ज नहीं बनता।

शनिवार, 12 जनवरी 2013

सामान्य जीवन


यह मेरा प्रथम ब्लॉग का आरम्भ है। इस ब्लॉग में सामान्य जीवन से सम्बंधित विचार कर सामान्य लोंगों को एक सूत्र में पिरोना चाहता हूँ। आपसब के सहयोग से आशा है मै इस कार्य में जल्द ही सफल हो जाऊंगा।