सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

बच्चों का स्कूली बस्ता

भारत में अनेकों शिक्षाविद् बच्चों के दिमाग पर बढ़ते हुए बोझ से चिंतित हैं। बच्चों का भारी बस्ता, बढ़ती हुई पुस्तकों की संख्या, सिलेबस – सभी समस्या घटाने के बजाय बढ़ा रही हैं। इस विषय पर समाचार-पत्र, टीवी में चिन्तन होता रहता है। पर परिस्थिति सुधरने की जगह और बिगड़ता हुआ ही प्रतीत होता है। अब तो CCE के तहत यह भी कह दिया गया है कोई बच्चा फेल न हो। पर क्या इससे समस्या सुलझ जाएगी?
बच्चों की शिक्षा के लिए जो समस्या शिक्षकों और अभिभावकों को भुगतना पड़ता है, उनकी एक लम्बी लिस्ट है। उनमें से कुछ निम्नांकित हैं –

बच्चों का बस्ता – मुख्य पुस्तक, वर्कबुक, सहायक पुस्तकें, कापियाँ – होम वर्क, क्लास वर्क, टिफिन, पेंसिल बॉक्स, वाटर बोतल, ज्योमेट्री बॉक्स आदि। सभी मिलाकर बस्ते का बोझ बच्चों के नाजुक कंधों के लिए सही नहीं है। फिर उन्हें जितनी पुस्तकें दी जाती हैं, उनमें 50% भी कोई बच्चा सीख नहीं सकता। परीक्षा तो पूरे पुस्तक में 10% की लेते हैं और बच्चों को कितने नम्बर आते हैं, सभी शिक्षक और अभिभावकों को भी पता है। तेज बच्चों को भी उस पूछे गए 10% प्रश्नों में शत-प्रतिशत नम्बर आये उसके लिए शिक्षक और अभिभावक को भी कितनी मेहनत मशक्कत करनी पड़ती है, यह भी किसी अभिभावक और शिक्षकों से छुपा नहीं है। फिर क्यों न कुछ पुस्तक या कुछ पाठ या कुछ विस्तार ही कम करके पुस्तकों के पन्ने ही कम कर दिए जाएँ।

पुस्तकों की संख्या – हर मुख्य पुस्तक के अलावा उसमें सहायक पुस्तकें भी जोड़ दी जाती हैं। इससे भी पुस्तकों की संख्या और भार बढ़ जाती है। जैसे – हिन्दी की मुख्य पुस्तक, व्याकरण की पुस्तक, वर्कबुक आदि। इनके साथ कापियों की संख्या भी बढ़ जाती हैं। यदि मुख्य पुस्तक में ही हर पाठ के साथ ही कुछ व्याकरण, वर्कबुक की बातें जोड़ दी जाए तो पुस्तक की संख्या कम हो जाएगी। पर पुस्तक मोटी हो जाएगी। इससे यह पता चलता है कि बच्चों के ऊपर कितना बोझ है। इसलिए पुस्तकों के पाठ भी कम करने होंगे। मेरे विचार से एक महीने के लिए एक पाठ ही पर्याप्त होगा। जैसे – पाठ पढ़ाना-समझाना, उनमें उनका प्रश्नोत्तर, उनमें आये शब्दों के अर्थ और व्याकरण समझाना आदि। इसी प्रकार गणित, विज्ञान के विषयों को भी समझना चाहिए।

सिलेबस – सिलेबस भी बच्चों के उम्र के आधार पर विचार करना चाहिए। छोटे बच्चों को मौखिक याद कराने पर वे आसानी से याद कर लेते हैं, पर लिखने या पढ़ने के लिए कहा जाए तो बड़ी कठिनाई होती है। अतः सिलेबस में छोटे बच्चों को अधिकांश मौखिक याद कराना चाहिए। जैसे – गिनती, पहाड़ा, परिभाषा, कवितायें, दोहे आदि। परीक्षा भी मौखिक रूप से उनकी क्रियाशीलता (Activity) के आधार पर लिया जाए। परीक्षा में कोई औपचारिकता आवश्यक नहीं।

बच्चे की उम्र – आजकल विद्यालयों और अभिभावक में सामंजस्य नहीं होने के कारण बच्चे की उम्र पर ध्यान नहीं है। कम उम्र के बच्चे ऊँची कक्षा में और अधिक उम्र के बच्चे नीचे की कक्षाओं में दिखते हैं। इससे भी कक्षा असंतुलित हो जाती है। परीक्षा की परिणामों को देखकर हम या तय कर लेते हैं कि यह बच्चा तेज है। इसलिए इस तेज बच्चे के आधार पर सिलेबस तैयार हो जाती है। परंतु यह देखना भूल जाते हैं कि उसकी उम्र अधिक है। उसके उम्र के हिसाब से उसकी अगली कक्षा का सिलेबस तैयार होना चाहिए।

शिक्षक की समस्या –अलग-अलग उम्र के बच्चों के कारण हर बच्चों से अलग-अलग व्यवहार करना कठिन होता है। अधिक उम्र के बच्चे कम परिश्रम से ही आगे बढ़ जाते हैं। वे कुछ नये की खोज करने लगते हैं। कम उम्र के बच्चों के लिए ज्यादा समय देना पड़ता है। उन्हें छोड़कर आगे बढ़ना उनकी उपेक्षा होगी। सिलेबस के अनुसार भी पढ़ाई पूरी करनी है। प्रत्येक पाठ पर ध्यान केन्द्रित करने पर सिलेबस पूरा नहीं हो पायगा। समय की कमी के कारण कुछ पाठ को महत्त्वहीन मानते हुए छोड़ना भी पड़ता है। इसलिए Important पाठ या महत्त्वपूर्ण प्रश्न निश्चित कर उसे पूरा करना पड़ता है।

अभिभावकों की समस्या – बच्चों की प्रगति के लिए अभिभावकों का भी पूर्ण सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। वरना सिलेबस शिक्षक मात्र से पूरा होने वाला नहीं है। विशेष रूप से कमजोर बच्चों को तो पढ़ाना और भी मुश्किल है। उनकी रुचि विषय की ओर रहती ही नहीं। उसे व्यक्तिगत समय देकर अच्छी तरह प्यार से उसकी कमजोरियाँ दूर करें, अभिभावक या शिक्षक से यह संभव नहीं हो पाता। मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा –  
“मैंने अपने बच्चे को तीन ट्यूशन दिया है। गणित और विज्ञान के लिए एक, अंग्रेजी के लिए एक और एक अन्य विषयों के लिए एक। फिर भी बच्चे में वांछित विकास नहीं हो रहा है।”
इन सभी समस्याओं से छुटकारा पाना है तो बच्चों का बस्ता का बोझ और सिलेबस बच्चों के उम्र के आधार पर तय करना पड़ेगा। अन्यथा मेरे विचार से इन बच्चों का बचपन छिन जायेगा और सही शिक्षा भी नहीं मिलेगी। बच्चों के संस्कार पर भी प्रभाव पड़ेगा। सरकार को इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और कुछ निश्चित योजना बनाकर कड़ाई से लागू करना चाहिए।

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

संस्कार

मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः।।
"जो दूसरे की पत्नि को माता के समान, दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले के समान देखता है और सभी जीवों में स्वयं को देखता है वही पण्डित है।"
पृथ्विव्यां त्रिणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढै:पाषाण खण्डेषु रत्नसंज्ञा विधियते।।
पृथ्वी में तीन ही रत्न हैं - जल, अन्न और मीठे वचन। पर मूर्ख लोग पत्थरों के टुकड़ों (हीरा, मोती, पन्ना आदि) को रत्न का नाम देते हैं।

सरस्वती पूजा



पिछले वर्षों की तरह इस बार भी शुक्रवार को वसंत पंचमी का उत्सव मनाया गया। वसंत पंचमी में माँ सरस्वती पूजा का आयोजन किया जाता है। इस पूजा का महत्त्व विद्यालयों में आवश्यक लगता है। विद्यालय के शिक्षक मिलकर विधिवत तैयारी करते हैं और पूरे श्रद्धा और धूमधाम के साथ विद्या की देवी की पूजा-अर्चना संपन्न करते हैं।

इस पूजा को अपने कॉलोनियों के आस-पास भी देखा जाता है। दो-चार लड़के आपस में मिलकर टोली बनाई और तैयारी शुरू कर दी। विभिन्न प्रकार की सजावट-रूपरेखा आदि देखने को मिलती है। इस पूजा में बच्चों का उत्साह देखते ही बनता है। इस पूजा में स्वतंत्रतापूर्वक अपनी-अपनी कल्पनाओं को साकार करने के लिए बच्चे की उत्सुकता देखते ही बनती है।

इस पूजा में सजावट और पूजा के साथ धूम-धडाका भी चाहिए। डिस्को, पॉप, रॉक, डीजे और पता नहीं क्या-क्या संगीत बजाये जाते हैं। इन संगीतों के ताल पर नाचते हैं। उछल-कूद करते हैं।
धीरे-धीरे पूजकों के दलों की संख्या बढ़ रही है। इससे मूर्त्तियाँ बनानेवाले कलाकारों को भी अच्छा-खासा रोजगार हो रहा है। पूजन सामग्री वाले दुकानदारों और पंडितों के भी वारे-न्यारे हो जाते हैं।

इस पूजा में कुछ खलनेवाली बातें भी हैं। पूजन टोलियों की संख्या अधिक होती जा रही है। इस बार मेरे घर तीन पूजन टोली पहुँच गई। सभी 51-51 रुपये की माँग कर रहे थे। पर जैसे-तैसे समझा-बुझाकर 10-10 रुपये देकर उन्हें विदा किया। हर महीने दो-तीन लोग किसी-न-किसी बहाने चंदा माँगने पहुँच जाते हैं। चंदा न देने पर लड़ाई-झगड़ा पर उतर आते हैं।

दूसरी खलनेवाली बात है – साउण्ड। माँ सरस्वती विद्या की देवी हैं। हमें उनसे विद्या की माँग नम्रतापूर्वक पूरी श्रद्धा से करनी है। विद्या की देवी को खुश करना है। उनके सामने ‘चिकनी चमेली...’, ‘सटा ले सैंया फेविकोल से...’ आदि गाना लगाकर भौंड़े तरीके से उछल-कूद करने से वे खुश हो जाएंगी? ऐसा प्रतीत होता है, हम पूजा नहीं, अपनी मौज-मस्ती के लिए पूजा का स्वाँग कर रहे हैं। ऐसे गानों को कानफाड़ू आवाज में लगाकर अपने भावी भविष्यों के संस्कार बिगाड़ रहे हैं। अगल-बगल के लोगों को ऊँजी आवाज से परेशान कर रहे हैं। आपस में वैमनस्य में वृद्धि कर रहे हैं। पर्यावरण दूषित कर रहे हैं।
ऐसे कार्यक्रमों (पूजा नहीं) से इन बच्चों को रोकना ही उचित है। सरस्वती पूजा अपने-अपने विद्यालयों में ही उचित है। वहाँ अपने शिक्षक के निर्देशन में पूजा करें। या अपने-अपने घर में अपनी शक्ति-क्षमता के आधार पर करें, चंदा माँगकर नहीं। इससे पूजा को सही स्वरूप मिल सकेगा।

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

मोह


बोकारो से धनबाद जानेवाली बस में मैं जा बैठा। सभी सीट भरी हुई थी। पर पीछे की सीट में खिड़की की बगल लाली सीट खाली थी। उस सीट पर मैं जा बैठा।

बस चल पड़ी। में खिड़की से बाहर का दृश्य देखने लगा। बोकारो शहर के क्वार्टर्स, फिर एयरोड्रम, फिर खेत और बाजार। एक-एक कर सामने की ओर से दृश्य आ रहे थे और तेजी से पीछे की ओर भाग रहे थे। ठीक मानव जीवन के समान - भविष्य, वर्तमान फिर भूत।

अचानक बस ने हिचकोले ली और थम गई। बस चास में रूककर सवारियों को उठा रही थी। बस यात्रियों से खचाखच भर गई और आगे बढ़ गई। एक औरत भीड़ में मेरे ही समीप खड़ी थी। उसके गोद में एक बच्चा था। बच्चा के कारण उसे खड़े होने में दिक्कत भी हो रही थी। उसने सभी यात्रियों की ओर निगाहें फिराई और मुझ पर आकर स्थिर हो गई। मुझे देखकर उसकी आँखों की एक आशा की किरण उभरी। उस औरत ने बड़े ही करुण निगाहों से मुझे देखा और कहा- "बाबू, जरा मेरे बच्चे को पकड़ लेंगे।

मुझे लगा जैसे मैं सस्ते में छूट गया। कहीं मुझसे स्वयं बैठने के लिए जगह माँगती तो...। मैंने तुरत उसके बच्चे को अपने गोद में ले लिया। वैसे भी बच्चे मुझे बड़े अच्छे लगते हैं। और किसे बच्चे अच्छे नहीं लगते?

मैंने बच्चे को अपने गोद में दोनों हाथों से घेरा बनाकर पकड़ रखा था। इस अवस्था में मेरी दाहिनी कुहनी खिड़की से बार-बार टकरा रही थी। जब-जब बस हिचकोले लेती कुहनी जोर से खिड़की से टकराती। बच्चा गोद से नीचे खिसक जाता। मैं बार-बार बच्चे को खींच कर गोद में रखकर संतुलन बनाने की कोशिश करता। इस कोशिश में मेरी कुहनी घायल हो चुकी थी। अचानक मेरे मन में एक बात आई। इस बच्चे से मेरा क्या संबंध है। मैं इसके लिए इतना क्यों परेशान हूँ। अपनी घायल कुहनी के दर्द को भूलकर बच्चे की सुरक्षा करते हुए मुझे आनंद क्यों हो रहा है। मैं समझ गया - मुझे उस बच्चे से मोह हो गया है।

बस एकबार फिर रूक गई थी। यात्री बाहर निकलने लगे थे। औरत भी बाहर निकलने के लिए तैयार होने लगी।
वह औरत बोली - "बाबू, अब हम यहीं उतरेंगे।"
मैंने हँसते हुए कहा - "बच्चे को भी ले जायेंगे?"
औरत ने मेरी बातों को हँसी में कहा - "आप ले जाएंगे, तो ले जाइए।"
मैंने कहा - "सचमुच!"
औरत थोड़ी सहम गई। फिर हँसते हुए मैंने उसे बच्चा दे दिया। औरत अपने बच्चे को लेकर बस से उतर गई। सारी सृ्ष्टि तो ईश्वर की बनाई हुई है। इसलिए सृष्टि की सारी वस्तुएँ तो उस ईश्वर की हैं। फिर किसी वस्तु से इतना मोह क्यूँ हो जाता है?