गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

गुरू परंपरा


मेरे मन में भी एक सवाल बार-बार उठता है कि यह गुरू परंपरा है क्या और इसकी आवश्यकता क्या है। इसके बारे में मैं भी सोचने लगा, बिलकुल आप लोगों की तरह.....।

जन्म लेते ही कोई ज्ञानी या समझदार नहीं होता. उसे किसी चीज की भी कोई जानकारी नहीं होती। पर बच्चे को उसके माता-पिता अपनी समझ और ज्ञान के अनुसार सब कुछ सिखाते हैं। इसलिए माता-पिता बच्चों के पहले गुरू होते हैं। माता-पिता के बाद वे पास-पड़ोस में जाते हैं और वहाँ से अनेक बातों को सीख लेते हैं। इसलिए पास-पड़ोस दूसरे गुरू हुए। पश्चात् वे विद्यालय जाने लगते हैं और अनेक शिक्षक उन्हें अनेक प्रकार का ज्ञान देते हैं। वे तीसरे गुरू हुए। विद्यालय से निकलने के बाद भी उन्हें गुरू तो चाहिए ही, जैसे - नेता, धर्मगुरू, कुल गुरू, व्यवसाय गुरू आदि। यही तो है गुरू परंपरा। और इसकी आवश्यकता भी स्पष्ट समझ में आती है।

आज के नवयुवकों को जाने किसने कह दिया हमें रूढ़ीवाद नहीं होना चाहिए। नया इतिहास बनाना चाहिए। बस इन नवयुवकों ने बड़े-बुजुर्गों से मुँह फेर लिया और चल दिए नया इतिहास बनाने। बुजुर्गों की कोई पूछ नहीं, कोई सम्मान नहीं। तो नवयुवकों के साथ कैसे दिन बिताये। वे किसी वृ्द्धाश्रम में दिन बिताते नजर आते हैं।

भाई, नया इतिहास तो तब बनेगा, जब हम बड़े-बुजुर्गों के अनुभवों को जान लेंगे और उनके अनुभवों का प्रयोग बार-बार करते हुए उन्हें जाँच-परख लेंगे। तभी हम उनके प्रयोगों की कमी और फायदे का निर्णय ले पायेंगे। सही ढंग से जाँचे-परखे बिना बुजुर्गों के अनुभव को गलत ठहराना किसी भी प्रकार लाभकारी नहीं हो सकता।

इन सभी के अतिरिक्त एक बात और है- किसी भी अनुभवों की सही ढंग से जाँच-परख करने पर कुछ नुक्सान दिखेंगे तो कुछ फायदे भी दिखेंगे। उस अवस्था में बिना अनुभव के कोई नया नियम लागू करना भयानक भी हो सकता है। इसलिए पुराने नियमों में ही कुछ सुधार कर प्रयोग में लाना ज्यादा फायदेमंद दिखता है।

इसी प्रकार सुधारवादी प्रक्रियाओं से गुजरकर हिन्दू धर्म में आज का स्वरूप दिखता है। सबसे पहले का सनातन धर्म, फिर साकार-निराकार, शैव-वैष्णव आदि होते हुए लाखों सम्प्रदाय से गुजर कर भी धर्म एक ही है - हिन्दू धर्म। यानी सभी के मूल में सनातन धर्म आज भी विद्यमान है।

यह अद्भुत हिन्दूधर्म इतना विशाल है जिसमें सभी सम्प्रदाय को पचाने की शक्ति है। अन्य धर्मों ने जगत विजय करने के लिए शस्त्रों का सहारा लिया। पर पवित्र हिन्दुधर्म के विस्तार के लिए स्वामी विवेकानंद, आदि गुरू शंकराचार्य, गौतम बुद्ध आदि ने केवल शास्त्र का ही सहारा लिया। यही है हिन्दुओं की गुरू परंपरा।

आज रूस, चीन, अमेरिका आदि बड़े-बड़े विकसित देश की क्या हालत है सभी जानते हैं। इन बड़े विकसित देशों में आत्महत्याओं की संख्या भी बड़ी है। दूर के ढोल सुहावने होते है। प्रारंभ में अनेकों नवयुवक भारत से बड़ी संख्या में अच्छे भविष्य की लालच में उन विकसित देशों में जाते हैं। पर 10-15 साल में ही भारत के गुणगान फिर से शुरू करते हैं। यही है हमारी गुरू परंपरा से संतुलित जीवन का आनंद।

अतः आइये हम भी यह संकल्प लें कि हम अपने गुरू परंपरा का सम्मान करते हुए अपने ही परंपरा को और भी समृद्ध बनाकर संसार का कल्याण करेंगे।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं  श्रेयः  परधर्मो  भयावहः।।

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